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बाजे पायलियाँ के घुँघरू

कन्हैयालाल मिश्र

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :228
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 422
आईएसबीएन :81-263-0204-6

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सहज, सरस संस्मरणात्मक शैली में लिखी गयी प्रभाकर जी की रचना बाजे पायलियाँ के घुँघरू।

जब मैं पंचायत में पहली बार सफल हुआ !


पास-पड़ोस की एक दूकान का उद्घाटन था। दूकान क्या, एक पूरी कम्पनी ही है। सब लोग एकत्रित हुए। मैं भी पहुँचा तो देखा कि ऊँची कुरसी मेरे लिए ख़ाली है और उद्घाटन मुझे करना है। मैंने सब मनुष्यों पर एक नज़र डाली तो सब युवा थे। तभी आ गये एक रिटायर्ड इंजीनियर महोदय !

मित्रों को मैंने धीरे से कहा, बाबूजी से कराइए उद्घाटन तो सब एक साथ मेरे ही लिए चिल्ला से पड़े, नहीं, नहीं, आप !

मैं कुरसी के पास गया और कहा, हमारी सभ्यता का मूलमन्त्र है मर्यादा। इस मर्यादा में युवकों का अधिकार है सेवा और वृद्धों का आशीर्वाद। प्रसन्नता है कि हमारे बीच में एक वृद्धजन हैं। सबकी ओर से मैं उनसे प्रार्थना करता हूँ कि वे इस शुभ कार्य का उद्घाटन करें और आशीर्वाद दें। अपने युवा साथियों से मैं प्रार्थना करता हूँ कि वे उस आशीर्वाद को नम्रता के साथ सिर-आँखों ग्रहण करें।

मैंने देखा कि सारा वातावरण एक सात्त्विक आह्लाद से भर गया। बाबूजी ने उद्घाटन किया, आशीर्वाद दिया और कार्य समाप्त हुआ, तो चलते समय मुझे अपने से लिपटा लिया, मेरे लिए यह बड़ी चीज़ थी।

श्रीराम शर्मा 'प्रेम' साथ थे। रास्ते में बोले, “आज मैंने आपसे कुछ सीखा।" मैंने पूछा, “क्या?" तो बोले, “यह कि मनुष्य पद-प्रतिष्ठा और दूसरी ऐसी ही चीज़ों के पीछे दौड़कर सफलता के स्वप्न देखता है, पर वास्तव
में सफलता इनसे मुँह मोड़कर चलने में है। अकसर यह होता है कि हम पाने में खोते हैं और खोने में पाते हैं, पर कुछ ऐसा भ्रमजाल चारों ओर छाया है कि हम इस सचाई को पकड़ नहीं पाते। आज आप उस कुरसी पर स्वयं बैठकर उद्घाटन करते और उपस्थित मनुष्यों के हृदयों में 50 डिग्री का मान पाते तो अब आप उस पर किसी दूसरे को बैठाकर सच कहता हूँ, सौ प्रतिशत मान पा गये।"

मैंने कहा, "तुम्हारा दृष्टिकोण ठीक है, मैं बरसों पहले ही यह बात समझकर गाँठ बाँध चुका हूँ, पर आज तो मैंने किसी दूसरे ही कारण या दृष्टिकोण से ऐसा किया है।"

उत्सुक हो श्रीराम भाई ने पूछा, “वह भी समझाइए।" मैंने कहा, “समाज में वृद्ध भी हैं और युवक भी। दोनों की मनोवृत्तियों में अन्तर स्पष्ट है। प्राचीन युग में जो आश्रम-व्यवस्था थी, वह इसका सर्वोत्तम इलाज था। युवक पुत्र ने जहाँ घर सँभाला कि वृद्धजी वानप्रस्थी हुए और जहाँ पुत्र पूर्ण प्रबन्धक हुआ कि वे संन्यास लेकर वन की राह लगे। आज दोनों साथ हैं और इसीलिए हर एक घर में घोर संघर्ष है और इस संघर्ष का फल है-सम्मिलित परिवार की समाप्ति। मैं सम्मिलित परिवार के घोर विरुद्ध हूँ, पर सम्मिलित परिवार संस्था को समाप्त करके भी यह प्रश्न पूरा नहीं सुलझता, क्योंकि फिर भी घर में न सही समाज में तो दोनों रहेंगे ही, संघर्ष घरों से निकलकर समाज के आँगन में खुल-खेलेगा। खेल ही रहा है आज।"

"फिर उपाय क्या है?" श्रीराम भाई ने पूछा।

मैंने कहा, “उपाय है दोनों की मनोवृत्तियों का अध्ययन कर दोनों के मध्य मर्यादा की रेखा खींचना। वृद्ध में अनुभव है, युवक में साहस। पहला सोचता है, इसे अभी क्या पता संसार का और दूसरा सोचता है, मैं जो चाहूँ कर सकता हूँ। दोनों अपनी ओर देखते हैं, दूसरे की ओर नहीं। अपने अनुभवों की छाया में वृद्ध चाहता है कि युवक उसकी आज्ञा का पालन करे। वृद्धत्व की सबसे बड़ी आकांक्षा है झुका हुआ सिर देखना। उसकी आँखें नत-सिर और विनत स्कन्ध देखना चाहती हैं और उसके कान सुनना चाहते हैं केवल एक वाक्य-जैसी आपकी आज्ञा !

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    अनुक्रम

  1. उग-उभरती पीढ़ियों के हाथों में
  2. यह क्या पढ़ रहे हैं आप?
  3. यह किसका सिनेमा है?
  4. मैं आँख फोड़कर चलूँ या आप बोतल न रखें?
  5. छोटी कैची की एक ही लपलपी में !
  6. यह सड़क बोलती है !
  7. धूप-बत्ती : बुझी, जली !
  8. सहो मत, तोड़ फेंको !
  9. मैं भी लड़ा, तुम भी लड़े, पर जीता कौन?
  10. जी, वे घर में नहीं हैं !
  11. झेंपो मत, रस लो !
  12. पाप के चार हथियार !
  13. जब मैं पंचायत में पहली बार सफल हुआ !
  14. मैं पशुओं में हूँ, पशु-जैसा ही हूँ पर पशु नहीं हूँ !
  15. जब हम सिर्फ एक इकन्नी बचाते हैं
  16. चिड़िया, भैंसा और बछिया
  17. पाँच सौ छह सौ क्या?
  18. बिड़ला-मन्दिर देखने चलोगे?
  19. छोटा-सा पानदान, नन्हा-सा ताला
  20. शरद् पूर्णिमा की खिलखिलाती रात में !
  21. गरम ख़त : ठण्डा जवाब !
  22. जब उन्होंने तालियाँ बजा दी !
  23. उस बेवकूफ़ ने जब मुझे दाद दी !
  24. रहो खाट पर सोय !
  25. जब मैंने नया पोस्टर पढ़ा !
  26. अजी, क्या रखा है इन बातों में !
  27. बेईमान का ईमान, हिंसक की अहिंसा और चोर का दान !
  28. सीता और मीरा !
  29. मेरे मित्र की खोटी अठन्नी !
  30. एक था पेड़ और एक था ठूंठ !
  31. लीजिए, आदमी बनिए !
  32. अजी, होना-हवाना क्या है?
  33. अधूरा कभी नहीं, पूरा और पूरी तरह !
  34. दुनिया दुखों का घर है !
  35. बल-बहादुरी : एक चिन्तन
  36. पुण्य पर्वत की उस पिकनिक में

विनामूल्य पूर्वावलोकन

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